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लेखनी कहानी -25-Jan-2022

आंखें

ना जाने कितना कुछ कह जाती ये आंखें,
बिन मतलब के भी दर्द सह जाती ये आंखें।
कभी तो बिन बोले भी बोल जाती ये आंखें,
कभी बोल कर भी ना समझा पाती ये आंखें।

खुशी में भी छलक पड़ती ये आंखें, ग़म में भी 
बरस पड़ती ये आंखें, कहीं गहरा राज़ छिपाती ये 
आंखें, तो कहीं सब राज़ खोल देती ये आंखें।

कहीं अरमानों का जनाजा उठाती, कहीं तक़ाज़ा
 करती नज़र आती ये आंखें।
कहीं नित-नए सपने दिखाती आंखें, कहीं कोरे सपने 
अपने अन्दर ही दफ़न कर जाती ये आंखें।

किसी को आशिक बनाती मद-भरी ये आंखें, तो किसी 
का चेहरा ना खुशी से देख पाती ये आंखें,
कभी करके दीदार-ए-यार सुकून पाती ये आंखें, 
तो कहीं दीदार को तरसते हुए मरने पर भी 
खुली रह जाती ये आंखें।

कभी तीर-ए-नज़र से दिल पर वार करती ये 
आंखें, इशारों ही इशारों में दिल चुरा लेती ये 
आंखें।
 

कहीं है सूनी किसी की आंखें, तो कहीं सपनों 
से भरी होती ये आंखें, किसी के लिए सपना है,
 कहीं किसी मज़लूम पर वासना से भरी गढ़

 जाती ये आंखें, कहीं किसी में ईश्वर 

का रूप भी देखती ये आंखें।

ये आंखें, आंखें तो हैं आंखें, सबकी एक ही कहां आंखें।

प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर) 200

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